أنت ِ..
| ثم لا أحد
| ..
| ..
| أجئ من أزقة الرماد
| ألملم الدجى ..
| عن الدروب
| وأفتح النهار ..
| للحبيب
| وبين جمرتين
| من هواه..
| أستند
| ..
| ..
| أنا الذي
| من وهمه ِ
| وحزنه النبيل
| يرتوي
| وأنت ِ
| زهرة ٌ
| من الحنين ِ
| تتقد
| ..
| ..
| أدوس
| في دفاتر الذهول
| فينجلي غبار المستحيل...
| والسيف
| يستعد
| لسانه يذوق من دمي
| يهيئ الكؤوس
| والأنخاب
| للقتيل..
| فأسرج المسافة
| التي كسرتها ...
| وابتعد
| ..
| .. وعندما أراك ِ
| يا أميرتي الصغيرة
| تمشين
| في دموعك الأميرة
| أسل روحي
| الشقية الظنون
| .. ضمادة ..
| وارتق الجراح
| والأنين
| وبعدها
| تنهار في تابوتها
| حجارة الجسد
| وأنت ِ
| ثم لاأحد |
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